मैंने मूर्ति गढ़ी ,
परन्तु ,
तुम्हें पसंद नहीं थी .
तुम रोकते गए ,
मैं मूर्ति बनाता गया ,
आखिर में ,
मेरी मूर्ति बन गयी ,
और ,
मैं चल पडा हूँ ,
आगे की ओर .
अब तुम कहते हो ,
मैं सब कुछ ,
सूना कर गया हूँ ,
मैं तुम्हारे इसी प्यार का ,
कायल हूँ .
खैर ,
किसी अगले मोड़ पर ,
अच्छे से मिलते हैं .
मुझे कविता ने ,
यही सिखाया है .
- त्रिलोकी मोहन पुरोहित , राजसमन्द ( राज.)
परन्तु ,
तुम्हें पसंद नहीं थी .
तुम रोकते गए ,
मैं मूर्ति बनाता गया ,
आखिर में ,
मेरी मूर्ति बन गयी ,
और ,
मैं चल पडा हूँ ,
आगे की ओर .
अब तुम कहते हो ,
मैं सब कुछ ,
सूना कर गया हूँ ,
मैं तुम्हारे इसी प्यार का ,
कायल हूँ .
खैर ,
किसी अगले मोड़ पर ,
अच्छे से मिलते हैं .
मुझे कविता ने ,
यही सिखाया है .
- त्रिलोकी मोहन पुरोहित , राजसमन्द ( राज.)
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