Saturday 27 July 2013

कायल हूँ .

मैंने मूर्ति गढ़ी ,
परन्तु ,
तुम्हें पसंद नहीं थी .

तुम रोकते गए ,
मैं मूर्ति बनाता गया ,
आखिर में ,
मेरी मूर्ति बन गयी ,
और ,
मैं चल पडा हूँ ,
आगे की ओर .

अब तुम कहते हो ,
मैं सब कुछ ,
सूना कर गया हूँ ,
मैं तुम्हारे इसी प्यार का ,
कायल हूँ .

खैर ,
किसी अगले मोड़ पर ,
अच्छे से मिलते हैं .
मुझे कविता ने ,
यही सिखाया है .

- त्रिलोकी मोहन पुरोहित , राजसमन्द ( राज.)

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