Saturday 27 July 2013

प्रार्थना ! चिरंजीवी बन जाना .

प्रार्थनाएं मन मांजती हैं ,
और मन ,
स्वच्छ दर्पण सा
दमक उठता है .
उस दर्पण में ,
देखता हूँ स्वयं को ,
तब ,
मेरी जगह सदा ही ,
तुम मिलते .

प्रार्थना में बुदबुदाए ,
अस्फुट शब्द ,
स्वस्ति वाचन की तरह ,
अंतर्मन में ,
अनुगुंजित हो कर ,
बाहर आते ,
तब आपाधापी के ,
कोलाहल में ,
मानो प्रार्थना के स्वर ,
तप्त धरा पर वृष्टि जैसे .

प्रार्थनाओं से ,
मन जैसे - तैसे ,
बुद्धि के भीषण प्रवाह में ,
जी लेता है ,
जिस से ,
संस्कृति की हरित दुर्वा ,
धरती से चिपट-चिपट ,
संवेदना के स्वर ,
मढ़ जाती है ,
जिस से जीवन ,
अब भी स्पंदित है ,
प्रार्थना !
चिरंजीवी बन जाना .

- त्रिलोकी मोहन पुरोहित , राजसमन्द .( राज.)

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