Saturday 27 July 2013

मेरे गुरु तुम को प्रणाम .

मेरे गुरु ,
तुम को प्रणाम ,
तुम ने मुझ को ,
जो भी दिया ,
वह मेरे लिए ,
किसी उपहार से ,
कम नहीं .

मेरे गुरु ,
तुम बहुत ही तरल 
और ,
बहुत ही सरल हो ,
इसीलिए तुम्हारी सत्ता ,
सर्वत्र है और शाश्वत है ,
जिसे इंकार ,
नहीं किया जा सकता .

मेरे गुरु ,
तुम तल्लीन हो कर ,
मेरे साथ सदा एकाकार रहे
जैसे कुम्हार
मिटटी के साथ तन्मय हो जाता है .

मेरे गुरु ,
तुम ने मेरी ग्रंथियों को ,
बहुत धैर्य के साथ ,
समाप्त किया ,
मुझे रसमय कर लचीला बना दिया ,
जिस से मैं पात्र हो गया .

मेरे गुरु !
तुम निश्चय ही
ब्रह्मा-विष्णु-महेश हो ,
धोबी-सुनार-कुम्हार हो ,
तुम जो भी हो , जैसे भी हो ,
मैं , तुम से उपकृत हूँ.

-त्रिलोकी मोहन पुरोहित , राजसमन्द. (राज.)

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