(१)
जिन दस्तावेजों को ,
वर्तमान में ,
बहुत छोटे
और
कमजोर मान ,
फ़ेंक दिए गए हैं ,
किसी अँधेरी कोठारी में ,
वे ही दस्तावेज ,
उजाले में आते ही ,
कितना कुछ कह जायेंगे ,
यही तो है फर्क
अँधेरे और उजाले में।
(२)
जिस पहिये को ,
तुमने संभाल के रख लिया ,
अपने पुरखों की
निशानी के रूप में ,
अपनी श्रद्धा को रंग देने के लिए ,
मढ़ दिए ,
तीन-तीन रंग ,
वह पहिया ,
आज भी वहीँ का वहीँ है ,
उन रंगों के बोझ से।
(३)
कितना अच्छा होता ,
पहिये को
कोई धुरी मिलती ,
जिस पर वह चलता ,
उस पहिये के चलने से ,
कम से कम चेतना को ,
जंग नहीं लगता
और ,
रंगों के बोझ से मुक्त हो कर ,
वह भरी दुपहरी में भी ,
रजत रूप में दिपदिपा रहा होता।
-त्रिलोकी मोहन पुरोहित, राजसमन्द (राज.)
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